शनिवार, 4 सितंबर 2010

ये कहां आ गए हम?

पूरे हफ्ते शनिवार का इंतजार रहता है। एक छुट्टी मिलेगी और फुर्सत के क्षणों में चिंतन-मनन का काम करुंगा। शनिवार तो आता है, छुट्टी भी मिलती है लेकिन वो फुर्सत के पल नहीं मिलते जिनकी तलाश रहती है। कभी बेटे को डॉक्टर के पास ले जाओ, तो कभी पिता जी को अस्पताल तो कभी बीवी को शॉपिंग तो कभी घर का सामान। शनिवार बीत जाता है और फिर अगले शनिवार का इंतजार। शायद ये हम जैसे लोगों की त्रासदी है, जिन्होंने बड़े बड़े ख्वाब संजोए और उन्हें पूरा करने का माद्दा भी रखते थे। लेकिन सामाजिक और पारिवारिक उलझनों ने ऐसा जकड़ा कि बस उस बैल की तरह हो गए जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी होती है और जिसे इधर उधर देखने का अधिकार नहीं होता। उसे बस चलते जाना है और तभी दम लेना है जब मालिक की इजाजत हो। हमें भी बॉस के आदेश का इंतजार होता है, जिसे किसी भी हाल में पूरा करना है, बिना अपनी बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल किए। अब सोचिए, इससे क्या हो रहा है। हमारी वो शक्ति कम हो रही है जो क्रांति ला सकती है। हमारी वो ताकत कम हो रही है जो बदलाव ला सकती है। आखिर कब तक हम बैल बने रहेंगे। हमें बदलाव लाना है तो सबसे पहले बदलना होगा- खुद को।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

करीब एक साल बाद अपना ब्लॉग देखने बैठा। इतने दिनों से फुसर्त नहीं मिली कि कुछ लिख सकूं। सोचा एक बार कोशिश करके देखता हूं। लेकिन दो तीन लाइन से ज्यादा बात समझ में नहीं आई। आखिर क्यों? क्या विचार शून्य हो गया हूं। शायद हां। कहीं आपके साथ भी तो ऐसा ही नहीं हो रहा। क्या आप भी इंसानी मशीन बनकर तो नहीं रह गए हैं। शायद हां, तभी तो कहीं क्रांति नहीं होती, कहीं मशाल नहीं जलती, कहीं मुहिम की शुरुआत नहीं होती।

रविवार, 26 अप्रैल 2009

लो मैं आया...

लो भइया, मैं भी ब्लॉगर हो गया। कूद गया आपकी दिलचस्प दुनिना में। आपकी बहुत सुनी, अब आप मेरी भी सुनिए। आपका बहुत पढ़ा, अब आप मेरी भी पढ़िए।