शनिवार, 4 सितंबर 2010

ये कहां आ गए हम?

पूरे हफ्ते शनिवार का इंतजार रहता है। एक छुट्टी मिलेगी और फुर्सत के क्षणों में चिंतन-मनन का काम करुंगा। शनिवार तो आता है, छुट्टी भी मिलती है लेकिन वो फुर्सत के पल नहीं मिलते जिनकी तलाश रहती है। कभी बेटे को डॉक्टर के पास ले जाओ, तो कभी पिता जी को अस्पताल तो कभी बीवी को शॉपिंग तो कभी घर का सामान। शनिवार बीत जाता है और फिर अगले शनिवार का इंतजार। शायद ये हम जैसे लोगों की त्रासदी है, जिन्होंने बड़े बड़े ख्वाब संजोए और उन्हें पूरा करने का माद्दा भी रखते थे। लेकिन सामाजिक और पारिवारिक उलझनों ने ऐसा जकड़ा कि बस उस बैल की तरह हो गए जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी होती है और जिसे इधर उधर देखने का अधिकार नहीं होता। उसे बस चलते जाना है और तभी दम लेना है जब मालिक की इजाजत हो। हमें भी बॉस के आदेश का इंतजार होता है, जिसे किसी भी हाल में पूरा करना है, बिना अपनी बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल किए। अब सोचिए, इससे क्या हो रहा है। हमारी वो शक्ति कम हो रही है जो क्रांति ला सकती है। हमारी वो ताकत कम हो रही है जो बदलाव ला सकती है। आखिर कब तक हम बैल बने रहेंगे। हमें बदलाव लाना है तो सबसे पहले बदलना होगा- खुद को।